सावन में आज भी बुंदेलखंड के गांव में झूला काफी लोकप्रिय है।
बुजुर्ग कहते हैं कि 30 से 40 साल पहले का माहौल इससे काफी अलग था। शाम ढलते ही घरों में नई नवेली दुल्हन सावन गीत गाने निकल पड़ती थी। झूला झूलन चलो गजनार 52 झूला डरे आदि गीत के सावन गूंजते रहते मोहल्लों में नीम के पेड़ पर झूला पड़े रहते। देर शाम तक भीड़ रहती परंपरा के अनुसार झूला अभी भी सावन मना रहे हैं पनवाड़ी ब्लाक के ग्राम पंचायत भरवारा के निवासी 94 वर्षीय गिरजा रानी बताती हैं कि एक समय था जब सावन मैं माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में झूले पड़ जाते थे महिलाएं गीतों के बीच झूले पर पेग पढ़ाती थी समय के साथ पेड़ गायब होते गए और इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व ही समाप्त हो गया जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी निभाई जा रही है 80 वर्षी सुशीला कहती हैं कि सावन में प्राकृतिक सिंगार करती हैं जो मन को मोहने वाला होता है यह मौसम ऐसा होता है जब प्रकृति खुश होती है तो लोगों का मन भी झूमने लगता है
बहन बेटियां मायके बुला ली जाती हैं सावन के नजदीक आते ही झुंड के रूप में एकत्र होकर महिलाएं सावन गीत गाया करती थी अपनी बहन बेटियों को ससुराल से बुलाने की परंपरा आज भी बुंदेलखंड में जारी है।
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