*महोबा —चमत्कार एवं रहस्य के साथ – साथ सत्यता का प्रतीक व आस्था और विश्वास का केंद्र बना मुढारी का प्रसिद्ध सती माता मंदिर*—-
जनपद महोबा के अति चर्चित एवं आवादी बाहुल्य ग्राम मुढारी में आज से चौसठ साल पहले एक ऐसा वाक्या भी घटित हुआ जिसे सुनकर यह यकीन नहीं होता की यह घटना सही है।घटना भारतीय इतिहास के सती प्रथा से सम्बंधित है।जब इस विदित घटनाक्रम के बारे में अति वृद्ध ग्रामीणों – प्यारेलाल राठौर,रघुनाथ प्रसाद मिश्र,राजाबाई रैकवार,कंधीलाल रैकवार,मोहन अहिरवार,हरनारायण तिवारी, मदनमोहन शिक्षक एवं गांव के ही रहने वाले मंदिर के पुजारी व उनके सगे भतीजे कृष्णकांत सक्सेना आदि ने अपने आँखों देखी बात बताई तो सच्चाई सामने आई और वास्तविकता से रूबरू हुए।समस्त घटनाचक्र इस प्रकार है। ग्राम मुढारी के रहने वाले रामसहाय सक्सेना के तीन पुत्र थे।
उनके सबसे बड़े पुत्र वलदेव एवं दूसरे पुत्र छक्कीलाल व तीसरे पुत्र रामदास थे। इनमें से छक्कीलाल लेखपाल की नौकरी करते थे। जो चरखारी तहसील के सूपा गांव में कार्यरत थे। अठारह वर्ष की आयु में इनकी सादी हमीरपुर जिले के बिहुनी गांव में शान्तिदेवी से हुई थी। अतः सादी के दो वर्ष बाद हैजा के चलते छक्कीलाल की तबियत गांव में रहते हुए बिगड़ गई और इलाज के अभाव में उनकी मौत हो गई। जिसकी सूचना गांव के सैन समाज के व्यक्ति को दी गई एवं बैलगाड़ी से उसे उनकी ससुराल बिहुनी उनकी पत्नी को मौत की खबर एवं साथ में बैलगाड़ी से साथ मुढारी लाने के लिए भेजा गया। जैसे ही उनकी पत्नी शान्तिदेवी को उनकी मौत की खबर दो दिन बाद मिली तो आते ही विलाप करने लगी और उन्होंने अन्न – जल त्याग दिया और मुढारी आकर उन्होंने अपने आप को एक बंद कमरे में कैद कर लिया और पूर्णतः खाना – पीना बंद कर दिया और उनके मुँह से एक ही बात बारबार निकल रही थी की मुझे अपने पति के चेतका में समाधि लेना है। जिसको रोकने के लिए समस्त परिवारिजनों एवं ग्रामवासियो ने लाख कोशिश की लेकिन उन्हें कोई नहीं रोक पाया यहाँ तक की शान्तिदेवी अपने परिवार के लोगों को पहचानने से मना करने लगी थी क्योकि उनमे ईश्वरीय शक्ति का वाश हो गया था। और वह भविष्य एवं भूत की घोषणा करने लगी थी। इसके बाबजूद भी पुलिस को सूचना दी गई और उन्हें बताया गया की पुलिस आने वाली है तो उन्होंने कहा की ना ही पुलिस आएगी और ना मुझे सती होने से रोक पायेगी और वास्तव में ऐसा ही हुआ पुलिस आई लेकिन बाहर गांव के रास्ते अचानक अन्य काम से दूसरे गई चली गई।एवं शान्तिदेवी बंद कमरे से अदृश्य होकर के पति की मृत्यु के सातवे दिन दिनांक 3 मार्च 1958 को घर से निकल कर पति की समाधि स्थल पर अचानक जा पहुंची ।जहाँ पर वंशी तिवारी के द्वारा अंतिम संस्कार के लिए उपले एवं लकड़ी का इंतजाम किया गया था। क्योंकि उन्हें यह ज्ञात हो गया था की वंशी तिवारी के द्वारा ही मेरे पति के अंतिम संस्कार की सामग्री एकत्रित की गई थी।जैसे ही वह वहां पहुंची अपने आप ही चिता में आग जलना प्रारम्भ हो गई और वह नीचे से छलांग मारकर ऊँची चिता पर जा बैठी जब चिता अपने भयंकर रूप में जल रही थी। तभी भयंकर पानी और भीषण ओले गिरना प्रारम्भ हो गए थे। लेकिन चिता ज्यो का त्यों अपना रूप धारण किये रही और आंधी, पानी एवं ओलावृष्टि से कोई असर नहीं हुआ तब ऐसी स्थति में ग्रामीणों एवं परिवारिजनों ने उनसे आशीर्वाद माँगा तो उन्होंने अग्नि में जलते हुए कहाँ की आज से मुढारी मौजा ( मैड़े ) में जीवन पर्यंत अतिवृष्टि एवं ओले नहीं गिरेंगे तब से आज तक ओलावृष्टि नहीं हुई और उनके देवर रामदास ने नौकरी की फरियाद की तो तीन माह के अंदर उन्हें लेखपाल की नौकरी मिल गई।जब क्षेत्र में लोगों को इस घटना की जानकारी लगी तो महीनों तक दर्शनार्थियों एवं श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ा रहा और उसी स्थान पर मेला भी लगाया गया।तब से गांव में इस मोहल्ले को सती मोहाल के नाम से जानने लगे एवं हरवर्ष इस स्थान पर नवरात्रो में मां दुर्गा को विराजमान किया जाता और जलविहार आदि भी निकाले जाते है। इस पवित्र स्थान का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया की यहाँ पर कानपुर, चंडीगढ़ मोहाली,पटियाला, दिल्ली, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, पुणे आदि दूर – दराज से फरियादि अपनी मन्नत लेकर आते और उनकी सभी मनोकामनायें यहाँ पर होती है। मान्यताओं के अनुसार सती प्रथा की शुरुआत मां दुर्गा के सती रूप के साथ हुई थी। जब उन्होंने अपने पति भगवान शिव के पिता दक्ष के द्वारा किए गए अपमान से क्षुब्ध होकर अग्नि में आत्मदाह कर लिया था। अतः 1829 को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में सती प्रथा पर रोक लगाई गई थी। जिसमें सबसे अहम् योगदान राजाराम मोहन राय का भी रहा था।
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